दो बहनें (उपन्यास) : रबीन्द्रनाथ टैगोर; अनुवादक : हजारी प्रसाद द्विवेदी
शर्मिला
स्त्रियाँ दो जाति की होती हैं, ऐसा मैंने किसी-किसी पंडित से सुना है।
एक जाति प्रधानतया माँ होती है, दूसरी प्रिया।
ऋतुओं के साथ यदि तुलना की जाय तो माँ होगी वर्षाऋतु यह जल देती है, फल देती है, ताप शमन करती है, ऊर्ध्वलोक से अपने आपको विगलित कर देती है, शुष्कता को दूर करती है, अभावों को भर देती है।
और प्रिया है वसन्तऋतु। गभीर है उसका रहस्य, मधुर है उसका मायामंत्र। चञ्चलता उसकी रक्त में तरङ्ग लहरा देती है और चित्त के उस मणिकोष्ठ में पहुँचती है जहाँ सोने की वीणा में एक निभृत तार चुपचाप, झंकार की प्रतीक्षा में, पड़ा हुआ है; झंकार-जिससे समस्त देह और मन में अनिर्वचनीय की वाणी झंकृत हो उठती है।
शशांक की स्त्री शर्मिला 'माँ' जाति की है। बड़ी-बड़ी हैं उसकी शान्त आँखें, धीर-गंभीर चितवन। सजल श्यामल नवीन मेघ के समान कमनीय है उसकी स्निग्ध और साँवली कान्ति; माँग में सदा सिंदूर की अरुण रेखा शोभती रहती है, साड़ी की किनारी काली और चौड़ी, दोनों हाथों में मगर के मुँहवाले मोटे-मोटे कंगन–जो साज-सिंगार की भाषा कम बोलते हैं, सोहाग की अधिक।
पति के जीवन-लोक में ऐसा कोई सीमान्त प्रदेश नहीं जहाँ उसके साम्राज्य का प्रभाव शिथिल हो। स्त्री के अति लालन की छाया में पति का मन भुलक्कड़ बन गया है। यदि किसी मामूली पलखत में फ़ाउन्टेन पेन मेज़ के किसी ऐसे हिस्से में पल भर के लिये ग़ायब हो गया, जो ज़रा कठिनाई से दिखाई देता है, तो इसके पुनराविष्कार का भार स्त्री पर है। स्नान करते समय कलाई की घड़ी कहाँ रख दी, शशांक को यह बात एकाएक याद नहीं आती, लेकिन स्त्री की नज़र ज़रूर उसपर पड़ती है। विभिन्न रंग के दो जोड़े मोज़ों में से एक-एक को पहनकर जब वह बाहर जाने के लिये तैयार होता है, उस समय स्त्री ही आकर उसकी ग़लती सुधार देती है। शशांक देसी महीने के साथ अंगरेज़ी तारीख जोड़कर जब मित्रों को निमंत्रण देता है और अप्रत्याशित अतिथियों का दल आ उपस्थित होता है तो उसे सँभालने की आकस्मिक जिम्मेदारी स्त्री की होती है। शशांक निश्चित रूप से जानता है कि दिनचर्या में कहीं कोई ग़लती रहेगी तो स्त्री के हाथों उसका सुधार अवश्य हो ही जायगा।इसीलिये ग़लती करना उसका स्वभाव बन गया है। स्त्री सस्नेह तिरस्कार के साथ कहती, 'अब मुझसे नहीं होता, तुम क्या कभी कुछ नहीं खीखोगे!' लेकिन यदि वह सीख ही जाता तो शर्मिला के दिन ग़ैरआबाद ज़मीन की तरह अनुर्वर हो जाते।
मान लीजिए शशांक दोस्तों के घर दावत खाने गया है। रात के ग्यारह बज गए या दोपहर हो आई। ब्रिज के दाँव चल रहे हैं। अचानक मित्रलोग हँस पड़े: 'उठो दोस्त, वह समन लेकर प्यादा आ गया, अब ज्यादा नहीं रुक सकते।
वही चिर-परिचित नौकर महेश है। मूछों के बाल पक गए हैं, सिर के बाल कच्चे ही हैं, पहनावे में मिरजई है, कंधे पर चारख़ाने का गमछा, और बगल में बाँस की लाठी। माईजी ने पुछवाया है कि बाबू यहाँ हैं या नहीं। माईजी को डर है कि कहीं लौटते समय अँधेरी रात में कुछ दुर्घटना न घट बैठे। साथ में एक लालटेन भी दी है।